देखन में छोटे लगें, रिटर्न दें भरपूर

कारोबार की दुनिया में भी कुछ पूरे विकसित हाथी होते हैं, कुछ नवजात हाथी यानी नये पैदा हुए। प्रकृति का नियम है कि नवजात हाथी या नवजात बच्चा दोनों ही तेज गति से बढ़ते हैं। नवजात बच्चे की सालाना विकास दर 100 प्रतिशत या 200 प्रतिशत भी हो सकती है। यानी पैदा होते वक्त जो वजन था, उसका दोगुना वजन अगले साल हो सकता है। इस विकास दर को बड़े होने पर बनाये रखना मुश्किल होता है। इसलिए बड़ी कंपनियों का विकास हर साल सौ प्रतिशत की रफ्तार से नहीं हो सकता।
बड़ी कंपनियों के शेयर शायद ही एक साल में कभी सौ प्रतिशत उछलते हों। पर छोटी कंपनियों के मामले में यह संभव है क्योंकि वह विकास की शैशवावस्था में होती हैं और विकास की तेज रफ्तार में होती हैं। छोटी कंपनियों की डूबने की रफ्तार भी बहुत तेज होती है क्योंकि उनके पास संसाधनों का, ब्रांड का वैसा सहारा नहीं होता, जैसा बड़ी कंपनियों के पास होता है।
इसलिए जो एक्सपर्ट, जो निवेशक छोटी कंपनियों के निवेश में महारथ हासिल कर लेते हैं, उनके रिटर्न बहुत शानदार आते हैं। पर छोटी कंपनियों में निवेश में महारथ हासिल करना बहुत मुश्किल काम है। इसकी वजह यह है कि बड़ी कंपनियों के आंकड़े, बड़ी कंपनियों से जुड़ी रिपोर्टें तो लगातार मीडिया में आती रहती हैं पर छोटी कंपनियों के बारे में जानकारियां जुटाना मुश्किल काम है। छोटी कंपनियों के प्रबंधन आम निवेशक से मिलने तक से इनकार कर देते हैं, हां म्यूचुअल फंड संयोजक, बैंक और पत्रकार उनसे मिल सकते हैं। छोटी कंपनियों ने जिन म्यूचुअल फंड योजनाओं में विशेषज्ञता हासिल कर ली है, उनके रिटर्न बहुत शानदार रहे हैं, ऐसी ही एक म्यूचुअल फंड स्कीम का नाम है, रिलायंस स्माल कैप। यह स्कीम उस कहावत को चरितार्थ करती है-देखन में छोटे लगें, रिटर्न दें भरपूर।
रिलायंस स्माल कैप ने 12 सितंबर 2018 के आंकड़ों के हिसाब से पिछले एक साल में करीब 10 प्रतिशत का रिटर्न दिया है। वैसे निवेश दीर्घकालीन होना चाहिए और रिटर्न पांच साल या इससे ज्यादा अवधि के लिए देखा जाना चाहिए। आंकड़ों के हिसाब से पिछले तीन सालों में इस फंड ने सालाना रिटर्न करीब 23 प्रतिशत का दिया है। पर पांच सालों की अवधि में देखें तो इस फंड के रिटर्न बहुत धमाकेदार हैं-हर साल करीब 38 प्रतिशत का रिटर्न।
यह बात हमेशा ध्यान रखनी चाहिए कि जैसे रिटर्न अतीत में आये हैं, वैसे रिटर्न भविष्य में भी आयें, ऐसा जरूरी नहीं है। इस रिकार्ड से इस बात की पुष्टि होती है कि रिलायंस स्माल कैप फंड और रिलायंस म्यूचुअल फंड के पास छोटी कंपनियों में निवेश के लिए विशेषज्ञता जरूरी है।
31 अगस्त, 2018 के आंकड़ों के मुताबिक रिलायंस स्माल कैप के पास कुल 7618 करोड़ रुपये की निवेश योग्य रकम थी। इस फंड का करीब 2.79 हिस्सा वीआईपी इंडस्ट्रीज में लगा है। गौरतलब है कि वीआईपी का शेयर पिछले एक साल में 135 प्रतिशत से भी ज्यादा उछल चुका है। इस फंड का करीब 2.61 फीसदी हिस्सा जायडस वेलनेस कंपनी के शेयरों में है। जायडस का शेयर एक साल में करीब 85 प्रतिशत उछल चुका है। कुल मिलाकर छोटी कंपनियों में रिटर्न बहुत जोरदार आ जाते हैं, अगर निवेश ढंग से किया गया हो तो। हां छोटी कंपनियों में निवेश की जोखिम भी ज्यादा है। इसलिए छोटी कंपनियों में निवेश सीधे करने के बजाय हमेशा म्यूचुअल फंड के जरिये ही करना चाहिए।
इस फंड के निवेश योग्य फंड का करीब 1.77 प्रतिशत हिस्सा यूनाइटेड ब्रीवरीज के शेयरों में भी है। यह शेयर भी एक साल में करीब 68 प्रतिशत उछल चुका है। छोटी कंपनियों में निवेश को लेकर सबसे बड़ा मसला होता है प्रबंधन की गुणवत्ता। छोटी कंपनियां कई मामलों में पारिवारिक दुकानों का विस्तार होती हैं यानी प्रमोटर अपनी पूरी मनमर्जी चलाते हैं। प्रोफेशनल प्रबंधन के लिए काम करने का स्कोप होता है। रकम इधर-उधर होने की आशंकाएं भी कम नहीं होती हैं। इसके अलावा एक से ज्यादा छोटी कंपनियों में निवेश के जरिये ही यह सुनिश्चित किया जा सकता है कि अगर कोई एकाध निवेश खऱाब हो जाये, तो बाकी के निवेश उसकी भरपाई कर दें। रिलायंस स्माल कैप ने बराबर यह सुनिश्चित किया है कि छोटी कंपनियों की सही पहचान की जाये। थोड़े ज्यादा जोखिम के साथ यह पर्याप्त रिटर्न प्रदायक फंड है।
म्यूचुअल फंड निवेश में बाजार जोखिम रहते हैं। इसलिए निवेशक अपना अध्ययन करें या किसी वित्तीय सलाहकार की सलाह लें।टार्कटिका में सब कुछ खामोशी से चल रहा था। आज पता चला कि चीन पोलर पॉवर बन चुका है। इस हफ्ते बुधवार को शंघाई से एक आइस ब्रेकर शिप को चीन ने रवाना किया है। ‘शुएलौंग-टू’ नामक इस जहाज पर 334 लोग सवार हैं। शुएलौंग का मतलब होता है, ‘बर्फीला ड्रैगन!’ यह जहाज रोस सागर के ‘टेरा नोवा बे’ पर डेरा डाल देगा। साउथ पोल पर इस तरह का यह पांचवां द्वीप है, जहां रिसर्च के बहाने चीन का कब्ज़ा होगा। चीन ने कहा, ‘इस पांचवें बेस पर हम 2022 तक शोघ करेंगे।’ ‘शुएलौंग-टू’ बर्फ तोड़ने वाला जहाज है, जिसे शंघाई के चियांगनान शिपयार्ड में 2016 से बनाया जा रहा था। इसके निर्माण में फिनलैंड के ‘आकेर आर्कटिक टेक्नोलॉजी’ और ‘चाइना स्टेट शिपिंग कॉरपोरेशन’ के तकनीशियन साझा रूप से काम कर रहे थे।
‘शुएलौंग-टू’ दुनिया का पहला आइस ब्रेकिंग शिप है, जो आगे और पीछे से बर्फ़ को तोड़ पाने में सक्षम है। ओरिजिनल ‘शुएलौंग’ 1994 में यूक्रेन से मंगाया गया था, जिसे चीन 2013 तक उन्नत करता रहा। ‘शुएलौंग-टू’ के बन जाने से दुनिया के बहुत सारे देश चीन पर आश्रित हो जाएंगे, जो दक्षिणी ध्रुव से शार्टकट रास्ता चाह रहे थे। नाभिकीय ऊर्जा से संचालित ‘शुएलौंग-टू’ में मिनिएचराइज़्ड रिएक्टर लगे हुए हैं। चीन इसकी सफलता के बाद नाभिकीय क्षमता से लैस एयरक्राफ्ट कैरियर के निर्माण में लगने वाला है। यह भविष्य का सुपर युद्धपोत होगा, जिसमें दुनिया की सारी सुविधाएं होंगी। कई लाख लोगों को जितनी बिजली की ज़रूरतें होंगी, वे सुपर युद्धपोत के माध्यम से पूरी की जाएंगी।
बहुत पहले सोवियत संघ ने उल्यानोवस्क शिपयार्ड में नौ नाभिकीय आइस ब्रेकिंग जहाज विकसित किये थे। अप्रैल 2018 में रूस ने खुलासा किया कि ‘अकादमिक लोमोनोसोव’ आइस ब्रेकर रिएक्टर से हम 70 मेगावाट बिजली पैदा कर रहे हैं। सेंट पीटर्सबर्ग शिपयार्ड में निर्मित रूस का ‘अकादमिक लोमोनोसोव’ दुनिया का अकेला फ्लोटिंग पॉवर यूनिट है, जिससे दो लाख लोगों की ऊर्जा ज़रूरतें पूरी हो सकती हैं।
इसके मुक़ाबले भारत कहां खड़ा है? पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय के सचिव शैलेश नायक ने मार्च 2015 में जानकारी दी थी कि स्पेन से हम पोलर रिसर्च वैसल (पीआरवी) आने वाले तीन वर्षों में हासिल कर लेंगे, जिससे 18 हज़ार नाॅटिकल माइल तक सफर और डेढ़ मीटर मोटी बर्फ की परत काटना आसान होगा। मंत्रालय ने इसके लिए 1 हज़ार 50 करोड़ आवंटित भी कर रखे थे। उस समय तक भारत के पास छह ‘पीआरवी’ उपलब्ध थे, जिनकी क्षमता 10 हज़ार नॉटिकल माइल का सफर और 40 सेंटीमीटर मोटी बर्फ काटने भर की थी। यह समय सीमा समाप्त हो चुकी है, मगर स्पेन से मिलने वाली ‘पीआरवी’ का कोई अता-पता नहीं है। यह एक छोटा -सा उदाहरण है, जो यह बताता है कि देश का पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय कितना संज़ीदा है।
साउथ पोल में हम सबसे पहले 1983-84 में अपने रिसर्च स्टेशन ‘गंगोत्री’ के साथ उपस्थित हुए थे। चीन हमसे साल भर बाद ही वहां अवतरित हुआ। 1990 में हमारा रिसर्च स्टेशन ‘गंगोत्री’ बर्फ़ में विलीन हो गया। लेकिन वहां अनुपस्थित होने से पहले, शिमाख़र ओएसिस पर ‘मैत्री’ नामक एक दूसरा स्टेशन 1989 में और मार्च 2013 में ‘भारती’ नामक स्टेशन हमने बना लिया। जहां पर मैत्री स्टेशन है, वहां से कोई तीन हज़ार किलोमीटर और आगे दक्षिणी ध्रुव है, वहीं चौथे रिसर्च स्टेशन ‘हिमाद्री’ का निर्माण करना है। मैत्री स्टेशन से ‘हिमाद्री’ वाले ठिकाने तक पहुंचने के लिए जिन चार पोलर रिसर्च वैसल (पीआरवी) की ज़रूरत पड़ रही है, उसके सिर्फ़ किराये पर तीन करोड़ 60 लाख़ रुपये ख़र्च हो जाएंगे।
कैसी विडंबना है, हम चले हैं अंटार्कटिका क्षेत्र में दो हज़ार साल के पर्यावरण परिवर्तन पर रिसर्च करने, लेकिन मंज़िल पर पहुंचने के लिए हमारे पास यान तक नहीं है। मई 2011 के अंतिम हफ्ते में 490 करोड़ के ‘आइस क्लास रिसर्च वेसल’ ख़रीदने की हामी हमारी संसदीय समिति ने भर दी थी। 60 लोगों की क्षमता वाला यह जहाज मार्च 2013 तक भारत को मिल जाना था। ‘आइस क्लास वेसल’ को हासिल करने के मामले में हम इतने साल सोते क्यों रहे? ऐसे सवालों का उत्तर देने में भू-विज्ञान मंत्रालय के अधिकारी आपको भूमिगत मिलेंगे।
अब इसकी भी बात हो जाए कि चीन वहां ‘रिसर्च’ के अलावा और क्या कर रहा है। ठीक आठ साल पहले, 3 सितंबर 2011 को ओस्लो से ख़बर आई थी कि चीन ने दक्षिणी ध्रुव के बरास्ते एक नये पोलर मार्ग का विस्तार किया है। कोई डेढ़ सौ साल से इस पोलर मार्ग को बनाने का प्रयास दुनिया के विकसित देश कर रहे थे। पोलर मार्ग के खुल जाने से अमेरिका, यूरोप और एशिया की समुद्री दूरी आधी से भी कम हो जाती है। इससे सदियों से तयशुदा मिस्र के स्वेज कैनाल वाले समुद्री मार्ग से मुक्ति मिलेगी। ईंधन में प्रति खेप 1 लाख 80 हज़ार डॉलर की बचत होगी। और सबसे फायदे की बात यह कि अदन की खाड़ी, मलक्का जलडमरुमध्य के समुद्री लुटेरों से छुटकारा। इससे मिस्र को ज़बरदस्त आर्थिक नुकसान पहुंचेगा, यह तो तय जानिये।
चीन ने सोमवार को ‘शुएलौंग-टू’ बनाने में जो सफलता हासिल की है, उससे पोलर मार्ग पर आवागमन में सबसे अधिक आसानी उसके जहाजों को होगी। सामने से या पीछे से बर्फ काटने में सक्षम जहाजों के न होने की वजह से दुनिया के विकसित देश हाथ पर हाथ धरे बैठे थे। आप बाहर से देखें तो यही लगता है कि दक्षिणी ध्रुव में सक्रिय देश पर्यावरण पर शोध कर बड़ा पुण्य का काम कर रहे हैं। लेकिन सच्चाई यह है कि जब से इस निरापद महादेश का पता चला, तब से बड़ी शक्तियां यहां दबदबा बनाने, नाभिकीय परीक्षण करने और सैकड़ों मीटर बर्फ के नीचे से सोना, चांदी, कोबाल्ट, तांबा, क्रोमियम, लौह अयस्क, निकेल, लीड, टीटेनियम, यूरेनियम को उड़ा ले जाने की ताक में लगी हैं। यों 1991 में मैड्रिड संधि के तहत 2041 तक ऐसे खनिज पदार्थों के दोहन पर रोक लगा दी गई है।
चीन इस समय दुनिया भर से तेल, गैस और खनिज बटोरने के लिए भूखे ड्रेगन की भूमिका में है। इस भूखे ड्रेगन को यदि पोलर मार्ग में हिस्सेदारी मिल जाती है तो निश्चित मानिये कि चीन की यहां लाटरी लग जाएगी। चीन दक्षिणी ध्रुव पर दावेदारी ठोकने में ज़रा भी नहीं चूकेगा। रूस, नार्वे, फिनलैंड जैसे देश चीन के बहाने दक्षिणी ध्रुव में एक नई लॉबी बना रहे हैं, इसे काउंटर करने के लिए यूरोपीय संघ और अमेरिका के साथ मिलकर भारत एक नया गुट क्यों नहीं बना सकता?

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